Friday, February 6, 2009

माँ...अब मैं बड़ा हो गया हूँ

मुर्गा मुर्गी प्यार से देखें,नन्हा चूजा खेल करे
कौन है जो आकर के मेरे,मात पिता का मेल करे

" दो कलियाँ " फिल्म का ये गाना सुनते ही मेरी एक दोस्त की आँखें भर आती थीं! और अच्छे खासे हंसते खेलते चेहरे पर गहन पीडा दिखाई देने लगती थी! उसके मम्मी पापा बचपन में ही एक दुसरे से अलग हो गए थे! वो अपनी मम्मी के पास रहकर ही बड़ी हुई! पापा के पास कभी छुट्टियों में जाना हुआ लेकिन पापा की दूसरी पत्नी की मौजूदगी के कारण अपने आपको एक मेहमान की तरह ही महसूस करती रही! हम लोग हमेशा बचते थे की उसके सामने अपने पापा के बारे में बात न करें क्योंकि ऐसे वक्त में उसे नज़र बचाकर आंसू पोंछते हमने देखा था! मेरी उम्र की मेरी दोस्त जिसके आज दो बच्चे हैं आज तक अपने अधूरे बचपन को नहीं भुला पायी! आज भी एक शिकायत भगवान् से और अपने माँ पिता से उसके दिल में गाँठ बनकर रहती है! माँ ने लाख चाहा की पिता की कमी महसूस न होने दे लेकिन अकेले अपनी जिम्मेदारी निभाती माँ कब गुस्सैल और चिडचिडी हो गयी उसे खुद पता न चला! अपनी उस दोस्त के लिए हमेशा मुझे भी उतना ही दुःख होता रहा! इसके बाद मन्नू भंडारी की किताब " आपका बंटी" पढ़ी! ऐसा लगा बंटी के रूप में अपनी दोस्त को ही देख रही हूँ! लगा जैसे सारा उपन्यास मेरी दोस्त की जुबानी सुन चुकी हूँ! बस केवल किरदार बदल गए हैं! इसके बाद जैसे सारे वो बच्चे जो माँ बाप के अलगाव की सजा भुगत रहे हैं.....बहुत दयनीय से लगने लगे!उसी वक्त जेहन में जो कुछ कौंधा ,कुछ यूं पन्ने पर आया!

माँ...अब मैं बड़ा हो गया हूँ
मैं जानता हूँ कि
तुझे बहुत फिक्र रहती है मेरी क्योकि
तुझे लगता है मैं छोटा हूँ अभी...

पर माँ..याद है तुझे
कल दीवार पर मैंने ही तो कील लगायी थी
तेरे ऑफिस से आने के पहले
मैंने अकेले ही बिस्तर की चादर बदली थी
कल ही तो दूध का पैकेट खरीद कर लाया था
और पैसे भी नहीं गिराए थे

माँ..मुझे पता है कि
पापा तुझसे झगडा करके चले गए हैं
और ये भी कि..
तू उन्हें बहुत याद करती है
याद तो मैं भी करता हूँ
पर मैं रोया तो तू कैसे चुप रहेगी

माँ,तू रोज़ मुझे अपनी गोद में सुलाती है
एक बार मेरी गोद में सर रखकर देख
एक बार मेरी बच्ची बनकर देख
तुझे अच्छा लगेगा माँ...
तुझे याद है न माँ

मैंने महीनों से कोई शरारत नहीं की है
स्कूल के किसी बच्चे से झगडा भी नही
याद कर माँ...मुझे नही भाता दूध
पर कितने दिनों से चुपचाप पी रहा हूं

मुझे ध्यान से देख माँ
मैं तुझसे कुछ कहना चाहता हूं
तुझे खुश रखना चाहता हूं
मैं अब छोटा नही रहा माँ
पूरे दस साल का हो गया हूं
मैं अब बड़ा हो गया हूं माँ.....

भगवान किसी बच्चे को दस साल की उम्र में बड़ा न बनाए....

35 comments:

Vinay said...

बहुत सुन्दर मन को हर्षित करने वाली कविता पढ़वाने के लिए धन्यवाद!

कुश said...

अभी कुछ कहते नही बन रहा है.

नीरज गोस्वामी said...

बहुत मार्मिक रचना है आप की.... इसे मैंने इस माह की कादम्बिनी में भी पढ़ा था...सच है माँ-बाप के झगडे में बच्चे सबसे अधिक प्रताडित होते हैं...उन बेकुसूरों को क्यूँ सजा मिलती है कौन समझेगा?
नीरज

Puja Upadhyay said...

marmik...aayi to yahi soch kar thi ki aapki yaatra ka ek aur kissa sunne ko milega par aapne to vyathit kar diya aaj. apne kuch doston ke jeevan me maine bhi ise kareeb se dekha hai. aaj aapko padha to unki yaad ho aayi.

अनिल कान्त said...

aapki kavita padhkar to aankhein bheeg gayi

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत मार्मिक और संवेदनशील.

रामराम.

रश्मि प्रभा... said...

जाने मन कैसा हो आया,निःशब्द हूँ और अन्दर कुछ पिघल रहा है.........

अनूप शुक्ल said...

मार्मिक! संवेदनशील कविता।

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत मार्मिक रचना है

संगीता पुरी said...

परिवार मे सुख शांति न हो तो बच्‍चों का बचपना समाप्‍त हो जाता है.....बहुत अच्‍छी अभिव्‍यक्ति दी आपने।

राज भाटिय़ा said...

आप की यह कविता बहुत मार्मिक और संवेदनशील है पता नही यह सब क्यो होता है,
धन्यवाद

मीत said...

आँख भर आयी...
सच में ऐसे कितने ही बच्चे हैं जिन्हें किसी न किसी वजह से माँ-पिता का प्यार नहीं मिल पाता...
आपने जो कविता लिखी है... बहुत सुंदर है... दिल के बहुत करीब नजर आती है...
मीत

प्रशांत भगत said...

whats wrong with the script of your blog? between every word there is circle. I can't read like this. please tell me the way to make it in proper way. Thanks

डॉ .अनुराग said...

मेरे तजुर्बे बड़े है मेरी उम्र से ...जानती हो पल्लवी नन्हे मन का किसी को भी तलाशना मन में एक टीस सी भर देता है ...आपका बनती अपने वक़्त से आगे का लिखा गया उपन्यास है .....कहने वाले कहते भी है की शायद मोहन राकेश जी की जीवन गाथा से प्रेरित होकर लिखा गया ...लेकिन सच में ऐसे बँटे बचपन का जीते जागते मैंने देखा है अपने दोस्त में ...जो मुझे १९ की उम्र में मिला .ओर अब अमेरिका में है ...ओर भारत आना नही चाहता ....

Abhishek Ojha said...

ऐसे बड़े हुए बच्चों से अभी कुछ दिनों पहले ही मिला हूँ... ! और कुछ कहने को है नहीं इस पोस्ट पर.

डा० अमर कुमार said...


यह बेहतरीन कविता बहुत लम्बे अरसे तक याद रहेगी..
आपका अतिशय आभार !

समयचक्र said...

बहुत सुन्दर धन्यवाद.

Anonymous said...

बच्चे से उसका बचपन छिन जाए, इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है। यह देखकर उस माँ के ह्रदय में क्या गुजरती होगी की उसका बेटा बचपन न जी पाया, पहले ही सयाना हो गया। बहुत मार्मिक रचना।

"अर्श" said...

पल्लवी जी बहोत ही मार्मिक और हिर्दैस्पर्शी ये कविता है ,बहोत ही गहरी बात कही है आपने ... आपकी लेखनी को सलाम...


अर्श

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

आपने एक बच्चे की पीडा और जो दिल की आवाज़ है उसे
सामने रख दिया !
अब ऐसे दर्द से
आँखेँ मिलायेँ भी तो
किस तरह ? :-((
काश,
किसी बच्चे पर ये जुल्म ना हो -
लिखती रहीये पल्लवी जी ..
बहुत स्नेह सहित,
- लावण्या

joshi kavirai said...

bahut hii bhawpuurNa rachana hai.sochane ke liye wiwiash karatii hai .ramesh joshi

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति.........

Sudhir (सुधीर) said...

पल्लवी जी,
बड़ी मार्मिक काव्य रचना हैं। जीवन के अपने उतराव चढाव में और अपने अहम् के टकराव में लोग अक्सर बचपन को अनदेखा कर देते हैं। शैशव की टीस और अनचाही परिपक्वता को अत्यन्त मार्मिक ढंग से लेखनीबद्य किया हैं।

कंचन सिंह चौहान said...

ये आज सब सेंटी क्यो कर रहे हैं मुझे...! आँखें भिगो दीं आपने...!

daanish said...

पल्लवी जी.....
बचपन की मासूम भावनाओं का बहुत ही प्रभावशाली इज़हार दीखता है
आपकी इस नन्ही कविता में .....
पवित्र शब्द , पवित्र लहजा , और पवित्र कहन...
इन सब की अनूठी अभिव्यक्ति के लिए साधुवाद स्वीकारें ..........

---मुफलिस---

jj said...

bahut hi zyada khubsurat rachna!

Atul Sharma said...

पल्‍लवी जी
बहुत ही मार्मिक लिखा है आपने। बहुत बहुत बधाई।

प्रवीण पराशर said...

bahut hi bhavnatmak hai .... badiya

Bahadur Patel said...

bahut sundar hai.

विष्णु बैरागी said...

केवल एक बच्‍चे का नहीं, ऐसे बच्‍चों की पूरी जमात का मार्मिक बयान है यह कविता। बच्‍चों की नजर से भी बच्‍चों को देखे जाने की मांग करती यह कविता खुद अपना बयान है।

आपकी पोस्‍ट में तारीख नहीं होती। ब्‍लागियों के साथ ऐसी 'पुलिसिया हरकत' ठीक नहीं है।

Mumukshh Ki Rachanain said...

"भगवान किसी बच्चे को दस साल की उम्र में बड़ा न बनाए..."

शायद आज तो बच्चे क्या बड़े भी ठीक से बड़े नही बन पाते, वरना समस्याएं ही क्यों होती.
हमारे क्या बोलने से या क्या करने से क्या हो सकता है यदि इसका इल्म हो जाय तो शायद समस्याय ही न खादी हों, पर हमारे विना विचारे बोल और कर्म ही हमें बच्चा बना कर रखते हैं और परेशानियों को झेलने वाला बच्चा बिना उम्र पाए समझदार हो बड़ा बन जाता है.

चन्द्र मोहन गुप्त

हरकीरत ' हीर' said...

पल्‍लवी जी, आपको नमन करती हूँ इस कविता के लिए ...कैसे लिखा ये सब...? एक कोमल
मन की भावनाओं को हूबहू कैसे उरेका...? वो भी इतनी गहराई से...

माँ,तू रोज़ मुझे अपनी गोद में सुलाती है
एक बार मेरी गोद में सर रखकर देख
एक बार मेरी बच्ची बनकर देख
तुझे अच्छा लगेगा माँ...
तुझे याद है न माँ

मैंने महीनों से कोई शरारत नहीं की है
स्कूल के किसी बच्चे से झगडा भी नही
याद कर माँ...मुझे नही भाता दूध
पर कितने दिनों से चुपचाप पी रहा हूं

इस समय संज्ञाशुन्‍य हूँ....!

Puja Upadhyay said...
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anurag said...

टूटे बचपन से बुरा कुछ नहीं. जो बच्चे ऐसे टूटे घरों में बड़े होते हैं ,उनमे से अधिकांश की जिन्दगी में हमेशा गम का अँधेरा छाया रहता है, उदास रहना उनकी आदत बन जाती है. ऐसे बच्चों को युवा होने पर अपना जीवन साथी बहुत ममतालु खोजना चाहिए जो उन्हें अप्राप्त प्रेम दे और रिक्तता के शून्य को भरने का प्रयास करे.

Kanupriya said...

Wow, you write lovely stuffs...esp. the poems. Very beautiful!