Saturday, July 14, 2012

रे तुम "मैं" ही तो हो .



तुम अपना असली पता जानना चाहते हो न ? अपने होने की वजह जानना चाहते हो न? 

क्या तुमने एकांत में अपनी आत्मा से संवाद किया है? किसी दिन अपनी आत्मा को हथेलियों में भरकर प्यार से उससे पूछो ..देखो कि ये तुम्हे तुम्हारा क्या ठिकाना बताती है?

क्या तुमने अपने आसपास पसरे मौन को सुनने की कोशिश की है कभी ? तुम्हे जानकर हैरत होगी कि इस मौन को सुनने के लिए ईश्वर ने हमें एक जोड़ी कान और दिए हैं जिनका इस्तेमाल कई बार हम जीवन भर नहीं कर पाते! कभी भीड़ में जाओ और तब उस मौन को सुनो... क्या कहता है ये? क्या ये तुम्हे तुम्हारे साथ साथ एक और दिल की धडकन सुनाता है?

क्या तुमने कभी आँखें मूंदकर चलने की कोशिश की है? कभी अपने बदन को ढीला छोड़कर बंद आँखों से चलकर देखो! मन की आँखें राहों को ज्यादा अच्छी तरह पहचानती हैं!देखो कि तुम्हारे कदम तुम्हे कहाँ पहुंचाते हैं ! क्या ये वही जगह नहीं है जहां पहुँचने का आदेश ईश्वर से लेकर तुम आये थे?

पता है तुम्हे...कई बार सिर्फ इतनी सी बात जानने के लिए हज़ार जनम लेने पड़ते हैं! जितना मैंने बताया तुम उतना करके देखो..मेरा विश्वास है तुम अनुत्तरित नहीं रहोगे! तुम जान लोगे कि तुम कहाँ रहते हो!

तुम्हे अपने होने पर कभी यकीन नहीं आया ! क्या इतना भी नहीं समझते कि मेरा होना ही तो तुम्हारा होना है

अगर इतने पर भी तुम इस भेद को न बूझ सको तो क्या इतना संकेत काफी होगा ...


कि " जब भी मैं अपनी देह को खुरचती हूँ, तुम झड़ते हो "

7 comments:

Himanshu said...

जिंदगी बदलने के लिए महज़ एक नज़र भर काफ़ी है, लेकिन क्या 'उस ' नज़र के इंतज़ार के लिए ये जिंदगी काफ़ी है ...........'जब भी मैं अपनी देह को खुरचती हूँ, तुम झड़ते हो' वल्लाह| श्रीमान ,रविवार की सुबह को अध्यात्म और कुछ अनिर्वचनीय भावनाओं से लबरेज़ करने का धन्यवाद|

दर्शन said...

जब भी मैं अपनी देह को खुरचती हूँ, तुम झड़ते हो ,

और जब भी आत्मा ईश्वर से वार्तालाप करती है मेरा केवल ह्रदय शामिल होता है जबकि ध्वनी तुम्हारी ही गूंज रही होती है ...

रे तुम "मैं ही " तो हो ..

Anupama Tripathi said...

bahut sahii margdarshan ....saarthak post ..
aabhar .

pallavi trivedi said...

@दर्शन... "रे तुम "मैं ही तो हो ." इतना सुन्दर कहा तुमने! तुम्हारी इजाज़त से इसे पोस्ट का टाइटल बना रही हूँ!

डॉ .अनुराग said...

किसी कवि ने कहा आपका "आत्म" भी दूसरा ही है जिसे आप संबोधित कर रह होते है. हम सब "दूसरो" के बिना सभव नहीं है. मेरा निजी सामाजिक के बगैर "निजी "नहीं है कुछ" मै" मेरे भीतर ही रहते है बिना दूषित हुए .
love your post ......

लेखक को कुछ चले आ रहे दायरों से बाहर निकल कर देखना सुखद है .आखिर हर लेखक से से हम कुछ लेते है कुछ छोड़ते है

प्रवीण पाण्डेय said...

गहन वार्तालाप, परिचय के सारे बन्ध खोलता हुआ।

समयचक्र said...

बहुत बढ़िया विचारणीय अभिव्यक्ति ... आत्मचिंतन भी जरुरी है ... आभार